लेखनी कहानी -27-Jan-2023
निस्तब्ध गम्भीर रात में पाता गंगा के किनारे बिल्कुाल अकारण ही, जब इन्द्र मुझे बिल्कुसल अकेला छोड़कर चला गया, तब मैं रुलाई को और न सँभाल सका। उसे मैं प्यार करता हूँ, इसका उसने कोई मूल्य ही नहीं समझा। दूसरे के घर में रहते हुए कठोर शासन-जाल की उपेक्षा करके, उसके साथ गया, इसकी भी उसने कोई कद्र नहीं की। सिवाय इसके, मुझे अपशकुनिया अकर्मण्य कहकर और अकेले असहाय अवस्था में विदा करके, बेपरवाही से चला गया। उसकी यह निष्ठुरता मुझे कितनी अधिक चुभी इसको बताने की चेष्टा करना भी निरर्थक है। इसके बाद, बहुत दिनों तक न उसने मुझे खोजा और न मैंने ही उसे। दैवात् यदि कभी राह-घाट में मिल भी जाता तो मैं इस तरह मुँह मोड़कर चला जाता मानो उसे देखा ही न हो। किन्तु मेरा यह 'मानो' मुझे ही हमेशा तुस की आग की तरह जलाया करता, उसकी जरा-सी भी हानि न कर सकता। लड़कों के दल में उसका बड़ा सम्मान था। फुटबाल-क्रिकेट का वह दलपति था, जिमनास्टिक अखाड़े का मास्टर था। उसके कितने ही अनुचर थे, और कितने ही भक्त। मैं तो उसकी तुलना में कुछ भी न था। फिर-क्यों वह दो ही दिन के परिचय में मुझे 'मित्र' कहने लगा और फिर क्यों उसने त्याग दिया? परन्तु जब उसने त्याग दिया तब मैं भी जबर्दस्ती करके उससे सम्बन्ध जोड़ने नहीं गया।
मुझे खूब याद है कि मेरे संगी-साथी जब इन्द्र का उल्लेख करके उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की अद्भुत अचरजभरी बातें कहना शुरू कर देते, तब मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहता। छोटी-सी बात कहकर भी मैंने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वह मुझे जानता है अथवा उसके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता हूँ। न जाने कैसे मैं उस उम्र में ही यह जान गया था कि 'बड़े' और 'छोटे' की दोस्ती का परिणाम प्राय: ऐसा ही होता है। भविष्य जीवन में मैं भाग्यवश अनेक 'बड़े' मित्रों के संसर्ग में आऊँगा इसलिए, शायद, भगवान ने दया करके यह सहज-ज्ञान मुझे दे दिया था जिससे कि मैं कभी किसी भी कारण से अपनी अवस्था का अतिक्रमण करके अर्थात् अपनी योग्यता का खयाल किये बिना मित्रता का मूल्य ऑंकने न जाऊँ। नहीं तो देखते-देखते 'मित्र' प्रभु बन जाता है, और साध की 'मित्रता' का पाश दासत्व की बेड़ी बनकर 'छोटे' के पैरों को जकड़ लेता है। यह दिव्यज्ञान इतने सहज में और इस तरह सत्य रूप में मुझे प्राप्त हो गया था कि इसमें मैं हमेशा के लिए अपमान और लांछनाओं से छुटकारा पा गया हूँ।
तीन-चार महीने कट गये। दोनों ने ही दोनों को त्याग दिया- भले ही इसकी वेदना किसी पक्ष के लिए कितनी ही निदारुण क्यों न हो; किसी ने किसी की भी खोज-खबर नहीं ली।
दत्त-परिवार के घर में काली-पूजा के उपलक्ष्य में उस मुहल्ले का शौकिया नाटक-स्टेज तैयार हो रहा था। 'मेघनाद वध' का अभिनय होने वाला था। इसके पहले देहात में यात्रा¹ तो अनेक बार देखी थी किन्तु नाटक अधिक नहीं देखे थे। मैंने सारे दिन न नहाया, न खाया और न विश्राम ही किया। स्टेज बनाने में सहायता कर सकने से ही मैं मानो बिल्कुतल कृतार्थ हो गया था। इतना ही नहीं, जो सज्जन राम का अभिनय करने वाले थे, उन्होंने स्वयं मुझसे उस दिन एक रस्सी पकड़े रहने के लिए कहा था। इसलिए मुझे बड़ी आशा थी कि रात्रि में जब लड़के कनात के छेदों में से अन्दर ग्रीन-रूम में ढूँकेंगे और मार तथा लाठी के हूले खायँगे, तब मैं 'श्रीराम' की कृपा से बच जाऊँगा। शायद, वे मुझे देखकर भीतर भी एकाध बार जाने दें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! सारे दिन जी-जान लगाकर जो परिश्रम किया, संध्यान के बाद उसका कुछ भी पुरस्कार नहीं मिला। घण्टों ग्रीन-रूम के द्वार पर खड़ा रहा, 'रामचन्द्र' कितने ही बार आए और गये; किन्तु, उन्होंने मुझे न पहिचाना। एक बार पूछा भी नहीं कि मैं इस तरह खड़ा क्यों हूँ। हाय रे! अकृतज्ञ राम! क्या रस्सी पकड़वाने का मतलब भी तुम्हारा एकबारगी समाप्त हो गया?
¹ बंगाल में जो दृश्य-पट हीन अभिनय होते हैं, उन्हें 'यात्रा' कहते हैं, जैसे कि यहाँ पर रामलीला होती है।
रात्रि के दस बजे नाटक की पहली घण्टी बजी। नितान्त खिन्न चित्त से, सारे व्यापार के प्रति श्रद्धाहीन होकर, परदे के सामने ही एक जगह पर मैंने दखल जमाया और वहीं बैठ गया। किन्तु थोड़ी ही देर में सारा रूठना भूल गया। कैसा सुन्दर नाटक था! जीवन में मैंने बहुत-से नाटक देखे हैं, किन्तु वैसा कभी नहीं देखा। मेघनाद स्वयं एक अद्भुत तमाशा था। उसकी छह हाथ ऊँची देह और चार-साढ़े चार हाथ पेट का घेरा था। सभी कहते थे कि यदि यह मर गया तो बैलगाड़ी पर ले जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं। बहुत दिनों की बात हो गयी। मुझे सारी घटना का स्मरण नहीं है। किन्तु इतना स्मरण है, कि उसने उस दिन जो विक्रम दिखाया वह हमारे देस के हारान पलसाई भीम के अभिनय में सागौन की डाल कन्धों पर रखकर दाँत किड़मिड़ाकर भी नहीं दिखा सकते।
ड्रॉप सीन उठा। जान पड़ा- वे लक्ष्मण ही होंगे-थोड़ा-बहुत वीरत्व प्रकाश कर रहे हैं। इसी समय वही मेघनाद कहीं से एक छलाँग मारकर सामने आ धमका। सारा स्टेज चरमराकर काँप उठा, फूट-लाइट के पाँच-छ: गोले उलटकर बुझ गये- और साथ ही साथ उसका खुद का पेट बाँधने का जरी का कमरपट्टा भी तड़ाक से टूट गया! एक हलचल सी मच गयी। उसे बैठ जाने के लिए कई लोग तो भयभीत चीत्कार कर उठे, और कई लोग सीन ड्राप कर देने के लिए चिल्ला उठे- परन्तु बहादुर मेघनाद, किसी की भी किसी बात से, विचलित नहीं हुआ। बाएँ हाथ के धनुष को फेंककर उसने पटलून को थाम लिया और दाहिने हाथ से केवल तीरों से ही युद्ध करना शुरू किया।
धन्य वीर! धन्य वीरत्व! मानता हूँ कि मैंने तरह-तरह के युद्ध देखे हैं किन्तु हाथ में धनुष नहीं, बाएँ हाथ की अवस्था भी युद्ध-क्षेत्र के लिए अनुकूल नहीं-फिर भी केवल दाहिने हाथ और सिर्फ तीरों से लगातार लड़ाई क्या कभी किसी ने देखी है! अन्त में उसी की जीत हुई। शत्रु को भागकर आत्म-रक्षा करनी पड़ी।
आनन्द की सीमा नहीं थी, मग्न होकर देख रहा था और मन ही मन इस विचित्र लड़ाई के लिए उसकी शत-कोटि प्रशंसा कर रहा था। ऐसे ही समय पीठ के ऊपर अंगुली का दबाव पड़ा। मुँह घुमाकर देखा तो इन्द्र।
वह धीरे-से बोला, “बाहर आ श्रीकान्त- जीजी तुझे बुलाती हैं।” बिजली के द्वारा छू जाने के समान मैं सीधा खड़ा हो गया और बोला, “क्हाँ हैं वे?”
“बाहर तो आ, कहता हूँ।” रास्ते पर आने पर वह, सिर्फ 'मेरे साथ चल' कहकर चलने लगा।
गंगा के घाट पर पहुँचकर देखा, उसकी नाव बँधी हुई है- चुपचाप हम दोनों उस पर जा बैठे, इन्द्र ने बन्धन खोल दिया।
फिर उसी अन्धकारपूर्ण जंगल के रास्ते से होते हुए दोनों जने शाहजी की कुटी में जा पहुँचे। उस समय, शायद रात्रि अधिक बाकी नहीं थी।
किरासिन का एक दीपक जलाए जीजी बैठी हुई थीं। उनकी गोद में शाहजी का सिर रक्खा हुआ था और उनके पैरों के पास एक बड़ा लम्बा काला साँप पड़ा था।
जीजी ने कोमल स्वर में सारी घटना संक्षेप में कह सुनाई। आज दोपहर को किसी के घर से साँप पकड़ने का बुलावा आया था। वहाँ इस साँप को पकड़ने में जो इनाम मिला उसने उससे ताड़ी लेकर पी ली और चढ़े नशे में संध्यां के कुछ पहले घर लौट आया। फिर जीजी के बार-बार मना करने पर भी वह उस साँप को खिलाने के लिए उद्यत हुआ और देर तक खिलाता भी रहा। परन्तु अन्त में खेल को समाप्त करने के पहले, जब वह उसे पूँछ पकड़कर हंडी में बन्द करने लगा तब नशे की झोंक में आकर ज्यों ही उसके मुख को अपने मुख के पास लाकर, चुम्बन करके, अपना प्यार प्रकट करने गया, त्यों ही उसने भी अपना प्यार व्यक्त करने को शाहजी के गले पर तीव्र चुम्बन अंकित कर दिया।
जीजी ने अपने मैले ऑंचल के छोर से अपनी ऑंखें पोंछते हुए मुझे लक्ष्य करके कहा, “श्रीकान्त, उसी समय उसे ज्ञात हुआ कि अब समय अधिक नहीं है। तब उन्होंने यह कहकर कि 'आ रे, अब हम दोनों इस दुनिया से एक साथ ही कूच करें' साँप के सिर को पैर के नीचे दबा लिया और दोनों हाथों से उसकी पूँछ खींचकर इतना लम्बा करके फेंक दिया। इसके बाद दोनों का ही 'खेल' समाप्त हो गया!” इतना कहकर उन्होंने, हाथ से अत्यन्त वेदना के साथ, शाहजी के मुख के ऊपर का कपड़ा दूर कर दिया और बहुत सावधानी से उसके नीले होठों को अपने हाथ से स्पर्श करके कहा, “जाने दो, अच्छा ही हुआ इन्द्रनाथ, भगवान को मैं तनिक भी दोष नहीं देती।”
हम दोनों में से किसी से भी बोलते न बन पड़ा। उस कण्ठ-स्वर में जो मर्मान्तिक वेदना, जो प्रार्थना और जो घना अभिमान प्रकाशित हुआ, उसे जिसने सुना उसके लिए, भूल जाना इस जीवन में कभी सम्भव नहीं, किन्तु किसके लिए था यह अभिमान! और प्रार्थना भी किसके लिए?
कुछ देर स्थिर रहकर वे बोलीं, “तुम लोग अभी बच्चे हो, किन्तु, दोनों को छोड़कर मेरा तो कोई और है नहीं भाई; इसीलिए तुमसे भिक्षा माँगती हूँ कि इनका कुछ उपाय कर जाओ!” फिर अंगुली से कुटी के दक्षिण ओर के जंगल को बताकर कहा, “वहाँ पर जगह है। इन्द्रनाथ, बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि यदि मैं मर जाऊँ तो उसी जगह जा सोऊँ। सुबह होते ही उसी जगह ले जाकर इन्हें सुला देना। इस जीवन में इन्होंने अनेक कष्ट भोगे हैं- वहाँ कुछ शान्ति पाएँगे।”
इन्द्र ने पूछा, “शाहजी क्या बर में दफनाए जाँयगे!”
जीजी बोलीं, “मुसलमान जब हैं तब कब्र में ही दफनाना होगा भाई!”
इन्द्र ने पुन: पूछा, “जीजी, क्या तुम भी मुसलमान हो?”
जीजी बोली, “हाँ, मुसलमान नहीं तो और क्या हूँ?”
उत्तर सुनकर इन्द्र भी मानो कुछ संकुचित और कुण्ठित हो उठा। उसके चेहरे के भाव से अच्छी तरह देख पड़ता था कि इस जवाब की उसने आशा नहीं की थी। जीजी को वह दरअसल चाहता था। इसीलिए मन ही मन वह एक गुप्त आशा पोषण कर रहा था कि उसकी जीजी उसी के समाज की एक स्त्री है। परन्तु मुझे उनके कहने पर विश्वास नहीं हुआ। खुद उनके मुँह से स्वीकारोक्ति सुनकर भी मेरे मन में यह बात न बैठी कि वे हिन्दू-कन्या नहीं हैं।